लेखनी कविता - गज़ल

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मस्जिदों के सहन तक जाना बहुत दुश्वार था| देर से निकला तो मेरे रास्ते में दार था| अपने ही फैलाओ के नशे में खोया था दरख़्त, और हर मासूम टहनी पर ...

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